गुरु वशिष्ठ का प्राचीन मंदिर, जहां बहती है ‘सरस्वती’

 

यूं तो कहा जाता है कि प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम है जहां सरस्वती अप्रत्यक्ष और गंगा, यमुना प्रत्यक्ष बहती हैं परंतु माऊंट आबू की ऊंची पहाड़ियों के बीच से होकर एक जल स्रोत बहता है जो ऊंची

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यूं तो कहा जाता है कि प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम है जहां सरस्वती अप्रत्यक्ष और गंगा, यमुना प्रत्यक्ष बहती हैं परंतु माऊंट आबू की ऊंची पहाड़ियों के बीच से होकर एक जल स्रोत बहता है जो ऊंची पहाड़ियों से 700 सीढ़ियां नीचे उतर कर एक घाटी में स्थित गौमुख से होकर कुंड में गिरता है।

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इस जलस्रोत को सरस्वती का प्रवाह कहा जाता है। माऊंट आबू बस स्टैंड से 5 कि.मी. दूर स्थित गौमुख पहुंचने के लिए पहाड़ी सीढ़ियां घने जंगलों से होकर गुजरती हैं जहां करौंदा, केतकी, आम और अन्य प्रजातियों के वृक्षों की भरमार है।

पहाड़ से नीचे सीढ़ियों से उतरते हुए भी शरीर का संतुलन बनाना जरूरी होता है लेकिन फिर भी गौमुख जाते हुए उतनी मेहनत नहीं लगती जितनी मशक्कत वापस लौटने में करनी पड़ती है। 700 सीढ़ियां चढ़ना बेहद कठिन लगता है जिससे शरीर पसीना-पसीना हो जाते हैं।

गौमुख की शांति, गौमुख का पवित्र जल और गौमुख के पास बने सरस्वती, सूर्य नारायण और भगवान शिव के मंदिरों को एक ही कक्ष में देखकर सबका मन आस्थामय हो जाता है।

कहा जाता है कि वशिष्ठ ऋषि के तपस्या स्थल पर बने अग्नि कुंड से परमार, परिहार, सोलंकी और चौहान वंशों की उत्पत्ति हुई थी। परमार वंश में धूमराज और धूंधक राजाओं ने आबू पर्वत के प्रवेश द्वार स्थित चंद्रावती नगरी पर राज किया, जिसे अब तलहटी  के नाम से जाना जाता है और जहां अब ब्रह्मकुमारीज का शांति वन एवं मनमोहिनी जैसे भव्य परिसर हैं।

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मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लक्ष्मण के गुरु वशिष्ठ का यहां प्राचीन मंदिर है जिसमें राम और लक्ष्मण जी की मूर्तियां भी हैं। गुरु वशिष्ठ की पत्नी अरुंधती व कपिल मुनि की प्रतिमाएं भी यहां विराजमान हैं। मंदिर के बाहर नंदिनी कामधेनु गाय की प्रतिमा भी उसकी बछिया के साथ संगमरमर से बनी हुई है। मंदिर के परिसर में वाराह अवतार, शेषनाग पर सोए नारायण, विष्णु, सूर्य, लक्ष्मी समेत अन्य कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएं आस्था का केंद्र हैं।

इस वशिष्ठ मंदिर का जीर्णोद्वार महाराणा कुंभा ने सन् 1394 में कराया था जिसका विवरण पाली भाषा में एक शिलालेख में यहां अंकित है। मंदिर के जीर्णोद्वार के समय पर साक्षी स्वर्ण चम्बा वृक्ष जहां दर्शनीय है वहीं सन् 1973 में हुए भूस्खलन से मंदिर क्षतिग्रस्त हुआ और कई दुर्लभ मूर्तियां और भोजपत्र खाक में मिल गए जिनके अवशेष अभी भी यहां सहेज कर रखे गए हैं।

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इस क्षेत्र में मीठा करोंदा जामुन जैसा दिखाई देता है। क्षेत्र में आसपास कई बच्चों का अधिकांश समय पहाड़ी जंगलों में बीतता है और वे पैसा कमाने के लिए पर्यटकों को करोंदा जामुन की तरह ही कागज के लिफाफे में भरकर बेचते हैं। जंगली जानवरों से बेखौफ ये बच्चे सीधी पहाड़ियों पर सरपट चढ़ जाते हैं जबकि आमजन को सीढ़ियां चढऩे में ही पसीना आ जाता है। —डा. गोपाल नारसन