श्रीमद्भगवद्गीता की प्रसिद्ध 10 बातें

 


 

वेदों का तत्व ज्ञान है उपनिषद और उपनिषदों का सार है गीता। भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन को जो ज्ञान दिया था वह गीता के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गीता में जीवन की हर समस्याओं का समाधान है। गीता में हर तरह का ज्ञान है लेकिन आओ जानते हैं गीता ज्ञान की प्रसिद्ध 10 बातें।


1. 'न कोई मरता है और न ही कोई मारता है, सभी निमित्त मात्र हैं...सभी प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर के थे, मरने के उपरांत वे बिना शरीर वाले हो जाएंगे। यह तो बीच में ही शरीर वाले देखे जाते हैं, फिर इनका शोक क्यों करते हो।'

2. आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है।
 
3. हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते। एक न एक दिन सभी मारे जाएंगे। कोई आज मर रहा है तो कोई कल मरेगा। यह मृत्युलोक है और मृत्यु ही सबसे बड़ा रोग है। मृत्यु को छोड़कर अमृत के बारे में सोचो।
4. कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, लेकिन कर्म के फलों में कभी नहीं...इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो और न ही काम करने में तुम्हारी आसक्ति हो। जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता। कर्मो में कुशलता को ही योग कहते हैं।

5. क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है।

6. हे अर्जुन! सभी धर्मों को त्याग कर अर्थात हर आश्रय को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा, इसलिए शोक मत करो।...माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते॥....परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥

7. काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार ( सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहां काम, क्रोध और लोभ को 'नरक के द्वार' कहा है) आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥

8. श्री भगवान बोले- मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूं। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं। इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात तेरे युद्ध न करने पर भी इन सबका नाश हो जाएगा॥

9. जगत के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक द्वारा गए (मृत्यु को प्राप्त) हुए को वापस नहीं लौटना पड़ता, वह परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ फिर वापस आता है अर्थात्‌ जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है।

10. अब पढ़िए गीता का सार :-
• क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है।

• जो हुआ, वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है, जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिंता न करो। वर्तमान चल रहा है।

• तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया।

• खाली हाथ आए और खाली हाथ चले। जो आज तुम्हारा है, कल और किसी का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर मग्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दु:खों का कारण है।

• परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो, दूसरे ही क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया, मन से मिटा दो, फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।

• न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा, परंतु आत्मा स्थिर है- फिर तुम क्या हो?

• तुम अपने आपको भगवान को अर्पित करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है, वह भय, चिंता व शोक से सर्वदा मुक्त है।

• जो कुछ भी तू करता है, उसे भगवान को अर्पण करता चल। ऐसा करने से सदा जीवनमुक्त का आनंद अनुभव करेगा।

 



पैसा कमाने के चक्कर में इन 3 चीजों को कभी न भूलें, धनी व्यक्ति भी हो जाता है कंगाल

 पैसा इंसान को राजा से रंक, गरीब को धनवान बना सकता है. आचार्य चाणक्य ने पैसों के बारे में महत्वपूर्ण नीति बताई है. पैसों से व्यक्ति अपनी हर जरूरत की चीज खरीद सकता है और अपनी साथ ही अपने परिवार का भी भरण-पोषण करने में समर्थ होता है. लेकिन व्यक्ति में जब इसका घमंड आ जाए तो ये आपको अर्श से फर्श तक भी ला सकता है. पैसा हाथ से जाने पर दुबारा कमाया जा सकता है, लेकिन धन कमाने के चक्कर में अगर इन तीन चीजों को खो दिया तो उन्हें वापस पाना बहुत मुश्किल है. ऐसे में धनवान व्यक्ति भी लोगों की नजरों में कंगाल हो जाता है. आचार्य चाणक्य ने अपने नीति शास्त्र में बताया है कि 3 चीजें ऐसी हैं जो पैसों से भी बढ़कर हैं.

ये 3 चीजें आपको बनाती है रंक से राजा

प्रेम

पैसा और प्यार कहने मे दोनों बेशक छोटे शब्द हैं, लेकिन इन दोनों शब्दों के मतलब बहुत अलग हैं. कोई अपने परिवार को छोड़कर पैसों से प्यार करता है, तो कोई प्यार के लिए अपनी दौलत को ठुकरा देता है. कहते हैं प्यार के आगे दुनिया भर की दौलत फीकी पड़ जाती है.चाणक्य के अनुसार पैसों से प्यार खरीदा नहीं जा सकता.रिश्तों को सहेज कर रखना है तो इसमें पैसा कभी नहीं  आना चाहिए.रिश्तों के सामने पैसों का कोई मूल्य नहीं होता.कोई कितना भी धनवान क्यों न हो लेकिन अगर आपसे कोई प्रेम नहीं करता, रिश्ता नहीं रखना चाहता तो आपसे गरीब व्यक्ति कोई और नहीं.

धर्म

हमेशा धर्म को धन से ऊपर रखना चाहिए.मनुष्य को सही गलत की पहचान कराने वाला धर्म ही होता है.चाणक्य के मुताबिक अगर धन कमाने के चक्कर में धर्म को त्याग दिया तो ऐसे लोगों का समाज में उसकी प्रतिष्ठा घटती चली जाती है. व्यक्ति जल्द ही बुराई की रास्ते पर चलने लगता है और लोगों की घृणा का शिकार बनता जाता है.

स्वाभिमान

स्वाभिमान से आपके व्यक्तिव की पहचान होती है.व्यक्ति धन को अपनी मेहनत से दोबारा कमा सकता है लेकिन आत्मसम्मान चला जाए तो उसे वापस पाना बहुत कठिन है.स्वाभिमान के लिए पैसों का त्याग भी करना पड़े तो कभी पीछे न हटें.इससे आप एक अच्छे व्यक्तिव वाले व्यक्ति की मिसाल पेश करोगे.

 


 

गुरु वशिष्ठ का प्राचीन मंदिर, जहां बहती है ‘सरस्वती’

 

यूं तो कहा जाता है कि प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम है जहां सरस्वती अप्रत्यक्ष और गंगा, यमुना प्रत्यक्ष बहती हैं परंतु माऊंट आबू की ऊंची पहाड़ियों के बीच से होकर एक जल स्रोत बहता है जो ऊंची

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
यूं तो कहा जाता है कि प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम है जहां सरस्वती अप्रत्यक्ष और गंगा, यमुना प्रत्यक्ष बहती हैं परंतु माऊंट आबू की ऊंची पहाड़ियों के बीच से होकर एक जल स्रोत बहता है जो ऊंची पहाड़ियों से 700 सीढ़ियां नीचे उतर कर एक घाटी में स्थित गौमुख से होकर कुंड में गिरता है।

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इस जलस्रोत को सरस्वती का प्रवाह कहा जाता है। माऊंट आबू बस स्टैंड से 5 कि.मी. दूर स्थित गौमुख पहुंचने के लिए पहाड़ी सीढ़ियां घने जंगलों से होकर गुजरती हैं जहां करौंदा, केतकी, आम और अन्य प्रजातियों के वृक्षों की भरमार है।

पहाड़ से नीचे सीढ़ियों से उतरते हुए भी शरीर का संतुलन बनाना जरूरी होता है लेकिन फिर भी गौमुख जाते हुए उतनी मेहनत नहीं लगती जितनी मशक्कत वापस लौटने में करनी पड़ती है। 700 सीढ़ियां चढ़ना बेहद कठिन लगता है जिससे शरीर पसीना-पसीना हो जाते हैं।

गौमुख की शांति, गौमुख का पवित्र जल और गौमुख के पास बने सरस्वती, सूर्य नारायण और भगवान शिव के मंदिरों को एक ही कक्ष में देखकर सबका मन आस्थामय हो जाता है।

कहा जाता है कि वशिष्ठ ऋषि के तपस्या स्थल पर बने अग्नि कुंड से परमार, परिहार, सोलंकी और चौहान वंशों की उत्पत्ति हुई थी। परमार वंश में धूमराज और धूंधक राजाओं ने आबू पर्वत के प्रवेश द्वार स्थित चंद्रावती नगरी पर राज किया, जिसे अब तलहटी  के नाम से जाना जाता है और जहां अब ब्रह्मकुमारीज का शांति वन एवं मनमोहिनी जैसे भव्य परिसर हैं।

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मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लक्ष्मण के गुरु वशिष्ठ का यहां प्राचीन मंदिर है जिसमें राम और लक्ष्मण जी की मूर्तियां भी हैं। गुरु वशिष्ठ की पत्नी अरुंधती व कपिल मुनि की प्रतिमाएं भी यहां विराजमान हैं। मंदिर के बाहर नंदिनी कामधेनु गाय की प्रतिमा भी उसकी बछिया के साथ संगमरमर से बनी हुई है। मंदिर के परिसर में वाराह अवतार, शेषनाग पर सोए नारायण, विष्णु, सूर्य, लक्ष्मी समेत अन्य कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएं आस्था का केंद्र हैं।

इस वशिष्ठ मंदिर का जीर्णोद्वार महाराणा कुंभा ने सन् 1394 में कराया था जिसका विवरण पाली भाषा में एक शिलालेख में यहां अंकित है। मंदिर के जीर्णोद्वार के समय पर साक्षी स्वर्ण चम्बा वृक्ष जहां दर्शनीय है वहीं सन् 1973 में हुए भूस्खलन से मंदिर क्षतिग्रस्त हुआ और कई दुर्लभ मूर्तियां और भोजपत्र खाक में मिल गए जिनके अवशेष अभी भी यहां सहेज कर रखे गए हैं।

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इस क्षेत्र में मीठा करोंदा जामुन जैसा दिखाई देता है। क्षेत्र में आसपास कई बच्चों का अधिकांश समय पहाड़ी जंगलों में बीतता है और वे पैसा कमाने के लिए पर्यटकों को करोंदा जामुन की तरह ही कागज के लिफाफे में भरकर बेचते हैं। जंगली जानवरों से बेखौफ ये बच्चे सीधी पहाड़ियों पर सरपट चढ़ जाते हैं जबकि आमजन को सीढ़ियां चढऩे में ही पसीना आ जाता है। —डा. गोपाल नारसन

श्रीमद्भागवत गीता- ‘आत्मा का आकार’

 

जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है।

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श्रीमद्भागवत गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 1
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवदगीता

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।17।।

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अनुवाद एवं तात्पर्य : जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है।

इस श्लोक में सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त आत्मा की प्रकृति का अधिक स्पष्ट  वर्णन हुआ है। सभी लोग समझते हैं कि जो सारे शरीर में व्याप्त है वह चेतना है। प्रत्येक व्यक्ति को शरीर में किसी अंश या पूरे भाग में सुख-दुख का अनुभव होता है। किन्तु चेतना की यह व्याप्ति किसी के शरीर  तक ही सीमित रहती है। एक शरीर के सुख तथा दुख का बोध दूसरे शरीर को नहीं हो पाता। फलत: प्रत्येक शरीर में व्यष्टि आत्मा है और इस आत्मा की उपस्थिति का लक्षण व्यष्टि चेतना द्वारा परिलक्षित होता है। इस आत्मा को बाल के अग्रभाग के दस हजारवें भाग के तुल्य बताया जाता है। श्वेताश्वतर उपनिषद  में (5.9) इसकी पुष्टि हुई है : 

बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च।
भागो जीव: स विज्ञेय: स चानन्त्याय कल्पते।।

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‘‘यदि बाल के अग्रभाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाए और फिर इनमें से प्रत्येक भाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाए तो इस तरह के प्रत्येक भाग का माप आत्मा का परिमाप है।’’ इसी प्रकार यही कथन निम्नलिखित श्लोक में मिलता है।